उडे पंछी उन्मुक्त गगन में (தடயம்)

तमिल कहानी
उडे पंछी उन्मुक्त गगन में
मूल लेखकः पा. जेयप्रकाशम्
अनुवादकः डाॅ वी पद्मावती
तीस सालों से वह बैंक उसी स्थान पर रहता आया है। उसी जगह से अमुदा रुपए लगाने या निकालने के लिए उस बैंक में आती-जाती रही है।
उस बैंक के अंदर प्रवेश करते ही वह जरा काँप रही थी। भय ऐसी भावना है जो भोजन से भी अधिक तेजी के साथ यात्रा कर सकती है। जितना समय मुँह में लगाये जानेवाले खौर पेट तक पहुँचने के लिए लगता है उससे भी अधिक तेजी के साथ हृदय की हड़बड़ाहट पैरों तक पहुँच जाती है। वह अपने उलझनेवाले पैरों को सयत्न ऐसे आगे ले जा रही थी जैसे बैंक में नये नये प्रवेश करनेवाले करते हैं।
बैंक में खाता रखनेवालों की संख्या में वृद्धि हो रही थी। उस विशाल काॅलनी में छोटे से नुक्कड में छोटी सी इमारत में स्थित उस बैंक के बारे में कोई चिंता के बिना नवागंतुकों को अधिकारी गण बैंक में दाखिल कर रहे थे। माह के पहले दो दिनों में पेंशन लेने के बारे में सोच भी नहीं सकते। हाथ और पेट के संघर्ष में लगे रहनेवाली पेंशन लेनेवाली दीन-जनता पहले दो दिनों में बैंक में भरे हुए नज़र आते थे। रुपए जमा करना, निकालना, रोज़ हिसाब रखना, जमा राशि को दर्ज करना आदि सभी कार्य निचले तल में होने के कारण वहाँ भीड़-भाड़ अधिक थी। वहाँ पर एक व्यक्ति दूसरे के प्रति आँखों में उबाऊपन लेते हुए देखते रहते एवं कोई छोटी-मोटी बात के लिए रोज़ झगड़े में लगे रहने के कारण बैंक के साथ जुड़नेवाली आदर की भावना घट जाती है तथा वह शोरगुल से भरी हाट के दर्जे में गिर जाता है।


निचला तल अत्यंत खतरनाक है। जानेपहचाने चेहरे तथा परिचित लोगों से बचना अपरिहार्य हो जाता। अंदर प्रवेश करनेवाली अमुदा भयातुर होती हुई सीढ़ियों पर सावेग चढ़ने लगी।
सरकारी कर्मचारियों के लिए सेवानिवृत्ति की आयु 58 है। और 5 सालों तक वह सेवा कर सकती थी। जिस तरह मुँह में पड़नेवाली टार्च की रोशनी से दिग्भ्रमित होते हुए खरगोश दौड़े बिना खड़ा हो जाता है, उसी तरह जीवन के दबावों से दबकर यह जाने बिना ही 53 वर्ष की आयु में ही इस चिंता से सेवानिवृत्त हो गयी कि आगे क्या किया जाए़?इच्छा के बिना ही उसने जबरदस्त सेवानिवृत्ति के लिए लिखकर दे दिया था। धुले गए एवंझीर्ण शीर्ण होकर मोड़े गए जीवन को फ़ैलाने के लिए उसे स्वेच्छापूर्वक सेवानिवृत्त होने की आवश्यकता महसूस हुई।
पेंशन पानेवालों के लिए निजी कर्ज़लेने के लिए उसने आवेदन पत्र ले लिया था। उसके पेंशन की राशि के साथ आगे बचे हुए सालों की सीमा में उसके पेशन की राशि आदि का हिसाब लगाते हुए लिपिक ने बताया कि उसे डेढ़ लाख रुपए का कर्ज़ मिलेगा। आवेदन पत्र में उसने लिखा कि चिकित्सा के खर्च के लिए कर्ज़ चाहिए। फ़िर भी उसके मन में इस तरह का डाॅवाडोल चल रहा था कि उस राशि को प्राप्त करे या मना कर दें। उसके मन में उठनेवाले क्लेश खौलते पानी की तरह उसके अंदर उबल रहा था।
आवेदन पत्र को जाँचनेवाले लिपिक ने अमुदा को एक बार सिर उठाकर देखने लगे।
“क्या आपके पति आ गए हैं?“
उनकी नज़र उसे पार करते हुए बैठनेवाले लोगों पर इस इरादे को लेते हुए जा पड़ी कि वहाँ शायद कोई उसके पति होंगे।
“नहीं आए। कब आने के लिए कहूँ?“
“अभी आने के लिए कहिए। हस्ताक्षर करके वे जा सकते हैं। उसी दिन मैंने आपको बताया था न?“
आश्चर्य के साथ लिपिक ने उसको देखा।
दिल में घबराहट लेती हुई वह वहाँ से हटने लगी। अभी तक वे नहीं आए। उनको तो पहले ही बता दिया गया है कि इतने बजे बैंक में हस्ताक्षर करने के लिए उपस्थित होना है।
पति या पत्नी दोनों में से कोई एक सरकारी कर्मचारी के रूप में सेवानिवृत्त होते समय दूसरे को नामिती बनाते हुए हस्ताक्षर करना है। ऐसा नियम है कि किसी एक की मृत्यु होने पर भी दूसरे को पेंशन मिलेगा। बैंक का नियम ऐसा है कि निजी ऋण लेते समय भी जीवन-साथी की स्वीकृति निमित्त हस्ताक्षर होना अनिवार्य है। इसका कारण इसी न्याय में निहित है कि जो नियम पेंशन लेने के लिए है वही नियम उस पेंशन के ऊपर ऋण लेने के लिए भी लागू होगा। इसके पीछे का न्याय यही है कि ऋण लेनेवाले की मृत्यु पर उसके ’नामिती’ के रूप में दूसरे को उसे चुकाना है।
जिनकी इंतज़ार में वह थी, वे अभी तक नहीं आए। एक ही हस्ताक्षर लगाने के बाद वे वहाँ से जा सकते थे।
बैंक की खिड़की से वह सड़क पर नज़र गड़ा रही थी। सुबह की बारिश में धुलाए गए इमारतों पर सूरज की किरणें झलक रही थीं। गीले छत एवं भवन चमक रहे थे। सबह की इस चुस्ती भरे वातावरण में सवारी न मिलने के कारण कुछ आटो रिक्शावाले “राम नाम“ लेकर बैठे थे । पश्चिम के उजले आकाश में धुए की तरह काली लकीरें नीचे उतर रही थीं। फिर से ये बादल आगे की बारिश के लिए नींव डाल रहे थे। इन दृश्यों से हटकर आगे की दो गलियों को पार करते हुए जाएँ तो वहाँ अमुदा का घर है। उसी घर में उखाड़े गए पौधे की तरह उसकी ’लाड़ली’ सूखी पड़ी है। मन ही मन जब वह गल रही थी कि “क्यों री प्यारी! तू ऐसी क्यों हो गयी?“ तो उसकी आँखें के छोर में आँसू जम गए। उसकी लाड़ली को बचाने के लिए आवश्यक चिकित्सा खर्च के लिए ही यह डेढ़ लाख रुपए लेने हैं।
उस दिन घनघोर युद्ध चिढ़ गया था। उसकी दोनों बेटियाँ कयल और कलर दोनों ही कमरे को बंद करते हुए अंदर बैठी थीं। घर में होनेवाले हर एक झगड़े के लिए वे दोनों बेटियाँ साक्षी बनी हुई थीं। आँधी से मजबूत जड़ को कुछ नहीं होता लेकिन उसकी शाखाएँ टूटकर उलझकर गिर जाती हैं। बीस सालों से ज्यादा लड़कर झगड़कर दुर्बल हुए बिना अमुदा मजबूत हो गयी थी। मदियरसन और अमुदा नामक माँ-बाप के रोज़मर्रे के झगड़ों से बच्चे पूरी तरह पुराने कपड़े की तरह फट गयी थीं।
दीवार के बीच उगनेवाले पौधें की तरह शिथिल होकर ज्येष्ठ पुत्री कयल खड़ी थी। दीवार को यदि वह पौधा नहीं तोड़ पाता तो लकड़ी बनकर शिथिल हो जाएगा न? कयल से कोई भी किसी भी बात को बाहर नहीं ला सकते। कोई भी लालच दिखाते हुए या बहकाते हुए उससे कुछ भी जान नहीं पातेे थे। उसके रिश्तेदार तो उसके इस गुण के बारे में बार-बार बोलते थे।
“घण्टे बात करने पर भी ’हुम, हुम’ जैसे सवा शब्द को छोड़कर और कोई उससे मिले तो मैं अपना एक कान ही काट लूँगा“, उसके बारे में ऐसे भी कहते थे। अपने एक कान को काट लेना उनके आँचल में प्रयोग में होनेवाली उक्ति है।
कयल नामक कुँवारी के मन के दरवाज़े को कोई भी चीज़ हिला नहीं पाई। माँ-बाप की सतत चलनेवाली लड़ाई के बाद अगले दिन सुबह, पड़ोस के घर, सामने के घर, गली आदि किसी की भी परवाह किए बिना वह चलती रहती होती।
उस दिन का युद्ध चरमोत्कर्ष पर था। अंत के बिना चल रहा था। मदियरसन ने सोचा था कि हमेशा की तरह वह दिन भी गुज़र जाएगा। दरवाज़े को खोलते हुए कयल को शांतिपूर्वक देख रही थी। अपनी बेटी को देखकर अमुदा चिल्ला रही थी कि, “तुम अंदर जाओ“। तभी अपनी बेटी की उपस्थिति के बारे में जानकर मदियरसन मुड़ते हुए देखने लगा। उसके सीघे सामने कयल खड़ी थी।
“तुम इधर क्यों आई? जा जा“, वह उस पर बरस पड़ा।
वह अंदर नहीं गयी।
“हमें यह कहने के लिए शर्मिन्दा होती है कि आप हमारे पिताजी है“,उसने अचानक ही बता दिया।
उसके चेहरे पर वे शब्द ऐसे पड़े मानों उस पर गोबर के गोल को पानी में घुलाकर फेंक दिया गया हो। उसके हर एक शब्द अत्यंत सावधानीपूर्वक गढाए गए थे।
मदियरसन के लिए यह युद्ध स्थल अनपेक्षित था। उसने अपने सपने में यह नहीं सोचा था कि उसकी बेटी खुद युद्ध-क्षेत्र में अस्त्र लेकर उतरेगी। उसके द्वारा प्रयोग किए गए अस्त्र पास्फ़रस के बम की तरह जलाने लगे।
“तुम अंदर जाओ, क्या तुम भी कहने आ गयी़“, उसे इस बात की भी सुध-बुध नहीं थी कि वह अपनी बेटी से बात कर रहा है।
“सब बताते हैं कि आपकी दो पत्नियाँ हैं?“
“कौन, कौन?“ , घबराने के बाद संभालने लगा।
“क्या तुम्हारी माँ ने तुम्हे ये सब सिखाया है?“
“किसे बोलना है? आपके बारे में तो सब गंदी बाते ही करते हैं न। हम तो बहुत अपमानित हैं।“
“क्या आप इससे अपमानित नहीं है?“, इन शब्दों का अर्थ यही है।
अभी तक आस पड़ोस के घर, सामने की कतार के घरों में तो इस तरह की आवाज़ तो सुनाई नहीं गई। वे तो इस तरह की आवाज़ सुनने की आदी ही नहीं थे। वे इस बात का अनुमान भी नहीं लगा पाए कि वह कयल की आवाज़ है। वह ज़ोर से चिल्लाने लगी। किसी ने इस बात की अपेक्षा नहीं की होगी कि उस सुखे तन में स्थित छोटी स्वर-तंत्रियों से इस तरह की शोर भरी चिल्लाहट निकलेगी।
उसके अंदर का क्रोध नियंत्रण के बाहर हो गया।
“तू कौन है री््! मुझे पूछनेवाली?“, तथाकथिन पिता मदियरसन चिल्लाने लगा।
अग्नि के अस्त्रों की टकराहट के उन क्षणों में भी कयल स्पष्ट रूप से बोलने लगाी।
“आपको गर्व है कि आप मर्द हैं। यू आर ए मेल शुवनिस्ट (ल्वन ंतम ं डंसम ब्ींनअंदपेजद्ध“, वह शांतिपूर्वक बोल रही थी। उसके शब्द जैसे ही बाहर आए वह हाथ उठाते हुए दौड़ आ रहा था।
“मैं इसीलिए देखता हूँ कि तू मेरी बेटी है“
दरवाज़े को ज़रा खोलते हुए उसके छेद से देखनेवाली अपनी दूसरी बेटी मलर को जब मदियरसन ममता भरी दृष्टि से देखने लगा तो वह भी बोलने लगी,
“मैं भी आपकी बेटी नहीं हूँ“
वह एक बहुत बड़ी घोषणा थी। अपनी दोनों ही बेटियों से उसे मिलनेवाली चाबुक की मार थी।
उसने महसूस किया कि शांति के बगीचे-सदृश दो पुष्पों से एक बहुत बड़ी तूफ़ान उठकर उसपर प्रहार कर रहा था।
“सब एक साथ मिल गयीं, मैं देख लेता हूँ,“ वह चिल्लाते हुए बाहर जाने लगा।
“एक मिनट“, अमुदा ऐसे कहने लगी मानो उसने उसकी कमीज़ के काॅलर को पकड़कर खींच दिया हो, और आगे पूछने लगी,“ बेटियों के लिए आपने कोई उत्तर नहीं दिया?“
वह उसके बाद लौटकर नहीं आया। पिता, पति आदि शब्दों से भी उसने खुद को काटते हुए बाहर निकल गया था। इस तरह की काट-छाँट से तो अमुदा बीस सालों से भी ऊपर परिचित थी और उसे भोगती हुई आ रही थी।
कपड़ा, वस्त्र, बैंक के पास बुक आदि अपनी सभी चीज़ों को वह तीन महीनों के पहले ही पूरी तरह इकट्ठा करते हुए ले गया। उसके निवास स्थान के बारे में कोई पता नहीं था। अमुदा को डर था कि पति का बैंक-खाता भी उसी बैंक में होने के कारण वह कभी भी उस बैंक में आ सकता है। युद्ध तो समाप्त हो गया। उसके निकल जाने के बाद खत्म होने वाले युद्ध का परिणाम भयंकर छाया के रूप में पीछा कर रहा था। अमुदा एक आधी रात को घबराकर उठने लगी। उसे इस बात का पता नहीं था कि उसे किसी की आवाज़ ने उठाया या किसी के हाथ का स्पर्श। सामने बेटी मलर खड़ी थी।
“अम्मा, कयल का पता नहीं है“
हड़बड़ी में वह चिल्लाने लगी कि,“क्या हुआ री“
“हाय री बेटी“, रोने लगी। रोती हुई पूरे घर में ढूँढते समय, खुला हुआ दरवाज़ा कड़ी लगाये बिना बंद था। आधी रात के समय ये दोनों उस लडकी को कहाँ-कहाँ ढूँढते फ़िरेंगी। परिचितों एवं रिश्तेदारों को फ़ोन लगाकर पूछने लगीं। सभी परिचित जगहों को डर-डरकर सूचना देने लगी। दूसरी तरफ एक आश्चर्य मिश्रित उत्तर मिला कि,“ऐसा है क्या, वह लापता है क्या?“ अंत में मलर ने फ़ोन के द्वारा पिता को सूचित कर दी।
अपने भीतर की सारी घृणाओं को समेटते हुए दूसरी ओर से उसकी आवाज़ घर्राहट के साथ ऐसी सुनाई देने लगी मानो वह थूक रहा हो। “वह मर जाए“, आधी रात के समय में भी उसकी घृणा-भरी आवाज़ स्पष्ट सुनाई दे रही थी। फ़ोन कट गया। उस आवाज़ के लिए आग भरे दिन, शीतलता धरकर पाॅव जमानेवाला सायंकाल जैसा कोई भेद-भाव नहीं था।


अपने दिल के दड़कन को खुद सुनते हुए उन्होंने पूरी रात को काटा था। अमुदा के सामने दो ही बातें थी। अपने और कयल के लिए परिचत जगहों में सुबह सीधे जाकर पूछताछ करना तथा जाते समय ही हर तरफ़ यह देखना है कि वह कहीं मिलती है या नहीं। यदि उसे वह ढूँढ नहीं पाती तो अंत में पुलिस में जाकर शिकायत करनी है।
सामने के ऊपरी मंज़िल में रहनेवाली अरुणा की आवाज़ आने लगी, “कयल की माँ,कयल की माँ।“ आँखों को पोंछती हुई ऊपर देखने लगी तो उसने बताया कि,“ऐसा लगता है कि ऊपर की छत पर कोई सिमटते हुए लेटे है“। सुबह की रोशनी ने कयल को दिखा दिया था।
आश्चर्य के साथ अरुणा ने पूछा।
हडबडी के साथ, ऊपर चढ़कर देखी तो बारिश में भीगती हुई कपड़े की ढेर की तरह पड़ी रहनेवाली अपनी बेटी कयल को अपनी गोद में लेेती हुई पुकारने लगी,“बेटी, बेटी“। तन की हिलावट एवं गर्माहट से उसे पता चला कि वह ज़िन्दा है।
“क्यों बेटी, तुमने ऐसा क्यों किया?“
बेटी के चेहरे से अपने चेहरे को लगाती हुई रोने लगी। उसे ऐसे ही उठाते हुए जब अमुदा और मलर अंदर ले गये तो सामने के घरवाले और पड़ोसियों को लगा कि कुछ अवांछित बात हो गयी है।

2


“क्या इस उम्र में ऐसा रोग आएगा, डाक्टर?“
बहुत वेदना के साथ अमुदा डाक्टर को देखने लगी।
“आजकल कोई भी रोग उम्र को देखकर नहीं आता“
डाक्टर ने उत्तर दिया।
डाक्टर ने जाँचकर बताया - पार्किन्सन रोग। निश्चेतनता का रोग। मन के तनाव की अधिकता के कारण एवं दिमाग के नसों के जर्जर होने की वजह से शरीर में शिथिलता आकर तन निष्क्रिय हो जाता है। उसके शरीर के अवयव टेढे हो गए। हाथ एवं पैरों की उंगलियाँ मुड़ गए और चेहरे का पक्षाघात होने के कारण मुख एक तरफ़ ऐसा खिंच गया जैसे कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गयी हो। गला एक तरफ़ से टेढा होकर ही मुड़ पाया। गले को इस तरफ़ से उस तरफ़ या उस तरफ़ से इस तरफ़ वह हिला नहीं सकती थी। ऐसा लगा कि हमेशा उसका चेहरा, गला और दृष्टि बाईं ओर लगे हों। उसके नियंत्रण से भी परे होकर उसके मुँह से मक्खन की तरह गिरने लगे।
उसके सामने ऐसी कोई बात को नहीं लेकर जाना चाहिए जिससे उसका रोग अधिक हो जाए। मन के तनाव के बढ़ने के साथ-साथ रोग घटे बिना बढ़ता ही जाएगा। उसके दुष्प्रभाव बहुत भयानक होंगे। डाक्टर ने बताया कि उसका मन शांत होने के लिए थोड़ा समय लगेगा और उसे स्वाभाविक रूप में देखने के लिए बहुत समय लगेगा। डाक्टर की बातों को सुनते-सुनते अमुदा को लगा कि वह भी एक रोगी बन रही है। नसों के विशेषज्ञ के हरेक शब्द को ध्यान से सुनकर वह खुद को आज्ञा देने लगी कि, “चलो देखते हैं“।
वेदना की बेहोशी में रहनेवाली अमुदा को दूर की आवाज़ उठाने लगी। दुख से बंद होनेवाली अपनी आँखों को खोलते ही उसने देखा कि सामने महेंद्रन खड़े थे।
लिपिक के पास जाकर खड़ी हो गयी।
“क्या वे आ गए?“
लिपिक ने सिर उठाकर देखा। उसने पास ही खड़े होनेवाले महेंद्रन को दिखाया। लिपिक ने बताया कि फार्म में अमुदा दो हस्ताक्षर और वे एक हस्ताक्षर कर दें।
“कब आकर देखूँ?“ उसने लिपिक से पूछा।
“अब आप जा सकती हैं। कल सुबह रुपए ले सकती हैं। प्रबंधक के हस्ताक्षर के लिए मैं भेज दूँगा,“ उन्होंने निचले तल को दिखाया।
“उनके हस्ताक्षर हो जाने के बाद आपके खाते में जमा हो जाएँगे। “
लिपिक से विदा लेकर बाहर आयी।
बाहर आते ही उन्मुक्त हवा के सेवन से उसकी हड़बड़ाहट अगले ही क्षण दूर हो गयी और वह यह कहकर मुस्कुराने लगी कि, “उफ़ अभी मेरे जी में जी आया“। वे भी मुस्कुराने लगे जैसे वे उसे समझ गए हो।
“मुझे डर हो रहा था कि कहीं आप न आए तो क्या होगा?“, उसने कहा।
“मेरे साथ भी दो बातें नहीं हुईं जिनकी मुझे डर था“, महेंद्रन भी थोड़ा मुसकुराते हुए कहने लगे। “एक तो यह था कि लिपिक ने मुझसे यह नहीं पूछा कि आप ही मदियरसन हैं क्या। दूसरी बात - उनके जन्म-दिवस के बारे में जिसका मुझे पता नहीं था। यदि लिपिक मुझसे पूछते कि फार्म में अपना जन्म दिवस आप ने दिया हैं क्या तो मैं फँस जाता“, महेंद्रन ने आगे कहा।
“इन्हीं रुपयों के सहारे मुझे अपनी बेटी को बचाना है।“
वह विरक्त होकर बोल रही थी।
“आप डरिए नहीं। आज विज्ञान और चिकित्सा-तकनीकि का इतना विकास हुआ है जिससे कोई भी रोग लाइलाज नहीं हो सकता। जब मैंने अपनी पत्नी से आपकी बेटी के रोग के बारे में बताया तो वह रो उठी। उसने मुझे बताया कि आप ज़रा भी न सोचिए। उसने मुझे यह कहकर भेजा था कि मैं यह नकली हस्ताक्षर करके आ जाऊँ।“
“नकली हस्ताक्षर?“
“हाँ“, फ़िर साँस लेते हुए वे बोलने लगे कि,“मैं उनसे सलाह लिए बिना कोई भी काम नहीं करता“
उनके मुँह से निकलनेवाले इन शब्दों से वह आश्चर्य चकित होकर खड़ी रहीं। वह अपने जीवन की बीती हुई तीस सालों के अंदर घुसती हुई खोज में लग गयी। अत्याचारों से भरे उसके पारिवारिक जीवन में इस तरह की स्वाभाविकता का कोई चिह्न उसे दिखाई नहीं दे रहा था।
øयह कहानी तमिल के प्रसिद्ध कथाकार पा. जेयप्रकाशम का कहानी संग्रह “काट्रड़िक्कुम तिसैयिल इल्लै ऊर“ (अर्थात् कोई गाँव उस दिशा में नहीं है जहाँ पर हवा बहती है) से चुनी हुई है:
प्रकाशक: वम्सी बुक्स,
19, टी.एम. सारोन,
तिरुवण्णामलै-606 601
तमिलनाडु

Tamil version of the story தடயம் is available here.

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